दो थानों के, सीईओ की ….पहले मुर्गी आई या,एक ठोकर ने,शोकग्रस्त परिजनों पर दबाव..

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दो थानों के बहुरेंगे दिन…

जिले के दो थानों के दिन बहुरने वाले हैं। आपको बताते चलें कि कोयलांचल के थानों की गिनती बड़े थानों में होती हैं। इन थानों में जाने के लिए कई तरह का जुगाड़ लगाना पड़ता है। वैैसे भी  मजा इन्हीं थानों में थानेदारी करने का हैं। लेकिन, अब दो थाने जिनकी पूछपरख कम थी उनके भी दिन फिरने वाले हैं। असल में इन दो थानों की इनकम कम होने की वजह से थानेदार थानेदारी करने में कम दिलचस्पी दिखाते हैं।

खबरीलाल की माने तो बालको के कोल माइंस खुलने से अब इन दो थानाें की पूछपरख बढ़ जाएगी। क्योंकि गाडियां चलेंगी तो लफड़े भी होंगे और जब विवाद होगा तो  मामला थाना तो पहुँचेगा ही। मतलब साफ है, इन दो थानेदारों को साथ लेकर तो चलना ही पड़ेगा।

बताया जा रहा है कि बालको के माइंस को शुरू करने की कवायद के बाद अब आम लोगों के साथ खास लोगों के चेहरे में चमक आने लगी हैं। खासकर उन दो थाने के लोगों की जिनके एरिया से कोयला लोड गाड़ी गुजरने वाली है।

सीईओ की महंगी गरीबी…

अंग्रेजी में एक शब्द है “एक्सपेंसिव- पावर्टी” इसका मतलब होता है… महंगी गरीबी अर्थात गरीब दिखने के लिए आपको बहुत खर्च करना पड़ता हैं। जिले के सबसे बड़े फंड वाले जनपद में पदस्थ सीईओ पर ये बातें सही साबित हो रही हैं। वे अपने आप को अन्य सीईओ से गरीब दिखाने के लिए कहानी गढ़ रहे हैं।

वैसे तो ये महाशय जिले के कई जनपदों में अपना करतब दिखा चुके हैं, पर दूसरी पारी के खेल से ये खूब रन बना रहे हैं। ये बात अलग है कि साहब समय समय पर दो जनपदों में एक साथ रन बनाते  रहे हैं। कहा तो यह भी जा रहा है कि  इनके हंसमुख चेहरा और मधुर वाणी से सब कायल हो जाते हैं, पर असल में वो खतरों के खिलाड़ी हैं। जिन दो जनपदों में में ये खेला खेले हैं उसकी भी चर्चा भी ऑफिसरों में खूब हैं।

खबरीलाल की माने तो लंबे समय से जनपद में पदस्थ सीईओ का अंदाज जुदा जुदा है, वे कोरबा में कभी स्कूटी में घूमते हुए मीटिंग अटेंट कर लेते हैं। उनकी बोली और दिनचर्या को देखकर हर कोई यही कहता है कि सादा जीवन उच्च विचार… पर असल में हैं बड़े कलाकार—-!

एक ठोकर ने बना दिया आईपीएस औऱ काम के दम से…

 

कहते हैं ताश का जोकर और अपनों की ठोकर…

अक्सर जिंदगी की बाजी घुमा देते हैं…!!ऐसा ही एक ठोकर ने लैब असिस्टेंट को आईपीएस बना दिया। दरअसल  ये बिलासपुर रेंज के आईजी की कहानी है जो किसी फिल्मी से कम नहीं हैं। वे 1996-97 में एक लैब टेक्नीशियन के पद पर पदस्थ थे और एक दिन अचानक उनकी तबीयत बिगड़ गई।

बेहोशी की हालत में उन्हें हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया। हॉस्पिटल के एक सज्जन ने होश में आने के बाद पूछा ,तबीयत कैसे खराब हुई तो उन्होंने सच बताते हुए कहा कि खाना खाने के बाद स्टडी कर रहा था। उन्होंने पूछा , क्या स्टडी कर रहे हो तो जवाब था आरएएस और आईपीएस!

उस सज्जन ने तपाक से कहा कि तुम जैसे लोग एग्जाम पास नहीं नहीं कर सकते क्यों अपने शरीर को कष्ट दे रहे हो , उस दिन उनके बातों की ठोकर ने जिंदगी बदल दी और  ठाना कि अब तो आईपीएस बनके रहूंगा।  हुआ भी यही जहां चाह वहां राह की तर्ज पर आईपीएस भी बनें और अब वे अपने काम के दम पर न सिर्फ नाम कमा रहे हैं बल्कि, वे युवाओं के लिए आइकन बन गए हैं।

उनके काम करने की शैली से उन्हें 2008 से 2009 के बीच वीरता पदक से नवाजा गया था। इस वर्ष आजादी के अमृत महोत्सव के अवसर पर उन्हें राष्ट्रपति सराहनीय सेवा पदक से सम्मानित किया गया है। वे हमेशा  सोशल मीडिया में सक्रिय रहकर युवाओं को फिटनेस और मोटिवेशनल स्पीच से  जीवन जीने की कला सिखाते रहते हैं। वे प्रदेश के आईपीएस और आईएएस के लिए भी एक आइडियल बन गए हैं।

 

हड़ताल का मौसम……पहले मुर्गी आई या अंडा?

पहले मुर्गी आई या अंडा….?   इस सवाल पर तब से माथापच्‍ची हो रही है जब पहली बार लोगों ने मुर्गी को अंडा देते देखा था, आज तक इसका हल नहीं निकल पाया, सभी के अपने सवाल-अपने जवाब हैं। वैसे हमको इस सवाल से कोई लेना देना नहीं, मुर्गी जाने मुर्गा जाने या उसका अंडा। हमारे लिए तो बड़ा सवाल ये है कि पहले सरकार आई या हड़ताल——।
फार्म्यूला ये है कि सरकार बनाने के लिए हड़ताल करना सफलता की ओर पहले कदम है। ऐसा सभी विपक्षी करते हैं। फिर सरकार बनने के बाद हड़तालियों से निपटने के लिए प्‍लान भी तैयार करना होता है जो सरकार चलाने से ज्‍यादा पेचीदा है। इसकी जिम्‍मेादरी सत्‍ता पार्टी के नेता के इशारे पर घाघ अफसरों पर होती है।
छत्‍तीसगढ़ में भी ऐसा ही हो रहा है। सरकार, सरकारी मुलाजिमों को 6 प्रतिशत महंगाई भत्‍ता देने को तैयार हो गई, लेकिन सरकार के मुलाजिम इसके लिए तैयार नहीं हैं। सरकारी दफ्तरों के बाबू उन घाघ अफसरों को अच्‍छी तरह से जानते हैं जिनके कहने से सरकार अपने फैसले लेती है। हड़तालियों को भी ये अच्‍छी तरह से मालूम है कि अभी नहीं तो कभी नहीं—-। यानि मैदान में डट जाओ। कुछ तो हाथ में आएगा चाहे वो मुर्गी हो या अंडा दोनों में उनका ही फायदा है।
यानि अगर सरकार मान गई तो मन माफिक महंगाई भत्‍ता नहीं तो आने वाली सरकार तो वादा पूरा करने के लिए बैठी ही है। यानि हर हाल में हड़ताल के फायदे ही फायदे हैं। कल जब आप ये कालम पढ़ रहे होंगे तब हड़ताल शुरु हो चुकी होगी। रही बात पहले मुर्गी आई या अंडा इस बात पर माथपच्‍ची बाद में कर लेंगे। अभी तो हड़ताल का मौसम है और आप भी इसका आनंद लेने खुद को तैयार कर लें।

प्रसूता की मौत और हॉस्पिटल प्रबंधन का शोकग्रस्त परिजनों पर दबाव…

कहते हैं समरथ को नहीं दोष गुसाईं ! मतलब पॉवर और पैसा है तो किसी को भी झुकाया जा सकता है। यह एक बड़ा यक्षप्रश्न है कि यह कैसे संभव है कि आज के सामर्थ्यशाली के ऊपर कोई दोष मढ़ा ही नहीं जा सकता? कारण चाहे जो भी हो मगर यह सच है। विश्लेषण करने पर कई तथ्य उभरकर आयेंगे और यह अपने आप में एक विषय होगा। सच्चाई यही है  कि इन पर अगर दोष मढ़ भी गया तो  अमूमन उनका कुछ बिगड़ता नहीं।

यह कहावत हमेशा सुर्खियों में रहने वाले जिले के एक निजी अस्पताल पर बिलकुल फिट बैठता है।  मरीजों के परिजनों का खून चूसकर बने इस हॉस्पिटल में आये दिन मरीज की स्थिति को लेकर परिजनों और डॉक्टरों के बीच विवाद होताा रहता है। हां  इसी कैम्पस में संचालित एक और अस्पताल में विवाद नाम मात्र का होता हैं लेकिन इस मल्टी सुपर स्पेशलिस्ट अस्पताल में इलाज को लेकर हमेशा शिकायत मिलते रहती हैं।

अब बात करें एक प्रसूता की मौत की तो परिजन इस बात से गुस्साए हुए थे कि अगर समय पर सही ट्रीटमेंट मिलता तो शायद मां और शिशु बच जाते। जन्माष्टमी के अवसर पर नवागत शिशु के आगमन को लेकर पलकें बिछाए परिजनों का अस्वाभाविक, असामयिक प्रसूता और बच्चे के निधन से आक्रोशित होना स्वाभाविक है।

अब जब हॉस्पिटल प्रबंधन के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कराने पंहुचे तो हॉस्पिटल प्रबंधन ने उल्टा प्रसूता के परिजनों पर हंगामा मचाने और मारपीट करने की शिकायत दर्ज करा दी। मतलब दबाव बनाकर मरीज के परिजनों से शिकायत को वापस प्रयास किया गया और इस काम मे बाकायदा कुछ पॉवर फूल लोगों ने फूल इंटरेस्ट लिया और मामला को रफा दफा करा दिया गया। यानि समरथ को नहीं दोष गोसाई !

 

         ✍️    अनिल द्विवेदी,ईश्वर चन्द्रा