नई दिल्ली। वेबसीरीज या मूवी का टाइटिल ‘बेस्टसेलर’ लिखना आसान है, लेकिन क्या उसे बेस्ट सेलर बनाना भी इतना आसान है. सीरीज के पहले सीन से ही पता चल जाता है कि किसी दूसरे की किताब पर आधारित ये सीरीज बनाने वाले स्क्रीन प्ले राइटर्स ने अपनी रिसर्च ढंग से नहीं की है. जिस लोकोक्ति ‘रांड सांड सीढ़ी संन्यासी, इनसे बचो तो पावो काशी’ को इस मूवी का आधार बनाया गया है, उसे कबीर का दोहा बता दिया गया है. जबकि बनारस में ऐसा कोई नहीं मानता. इसका अर्थ भी गलत ढंग से बताया गया है, ऐसा लगता है कि इन सबसे बचना है, जबकि यही काशी की पहचान हैं, कइयों ने इन्हें काशी का दायित्व बताया है. ये अलग बात है कि इस वेबसीरीज में गालियों से बचने के लिए मेकर्स ने ‘काशी’ को ‘राजसी’ कर दिया है.
इससे आप अनुमान लगा सकते हैं कि इस वेबसीरीज को बनाने के लिए रिसर्च का क्या स्तर रहा होगा. उसमें जाने से पहले जान लेते हैं कि इस वेबसीरीज की कहानी क्या है? कहानी है एक ऐसे लेखक ताहिर वजीर (अर्जन बाजवा) की, जिसकी पहली किताब बुरी तरह फ्लॉप होती है और दूसरी किताब ‘रांड सांड सीढ़ी संन्यासी’ इतनी ज्यादा सुपरहिट होती है कि वो 10 साल तक उसकी कमाई खाता है और फिर कोई किताब नहीं लिख पाता. फिर उसकी कहानी में आती है मीतू माथुर (श्रुति हसन), जो उसकी जबरा फैन है और चाहती है कि उसकी जिंदगी की कहानी पर ताहिर अपनी अगली किताब लिखे.
नहीं है कोई सस्पेंस
दूसरी समानांतर कहानी चल रही है ताहिर की पत्नी मयंका (गौहर खान) की जिंदगी में जो एडमेकर है, उसकी जिंदगी में एक युवा असिस्टेंट पार्थ (सत्यजीत दुबे) जो धीरे-धीरे उसके इतना करीब आता है कि उसके साथ हमबिस्तर तक हो जाता है. इस वेबसीरीज के साथ सबसे बुरी और सबसे अच्छी बात ये है कि इसमें सस्पेंस नाम की कोई चीज ही नहीं है, सबको पता है कौन कर रहा है और क्यों कर रहा है, उसका अंदाजा भी लोग जल्द ही लगा लेते हैं. आप चाहें तो आखिर के 2 एपिसोड ना भी देंखें तो काम चल जाता है. ये भी तय मानिए कि हिंदी के लेखकों को करोड़ों का साइनिंग एमाउंट मिलना, और जिस तरह से लेखक का अंदाज दिखाया गया है, वो भी कहीं से वास्तविकता के आसपास भी नहीं फटकता.
कई चीजें लगेंगी बेमतलब की
पार्थ ताहिर का कम्यूटर हैक कर लेता है और उसके कैमरे के जरिए उसकी सारी बातें देख सुन रहा होता है. इसकी भी कोई तुक नहीं लगती कि इसका फायदा ऐसा क्या होता है और वो जो करना चाहता है, उसमें उसका क्या फायदा आखिर में होता है. लेकिन शुरूआती सस्पेंस बनाए रखने में ये एंगल अच्छा लगता है. कुछ जानकारियां मिल जाती हैं. ये भी समझ नहीं आता कि ताहिर को ट्विटर पर धमकाकर वो क्या करना चाहता है? क्योंकि ताहिर उसे ब्लॉक कर देता और सब दिक्कत खत्म हो जाती. इधर मीतू माथुर भी ताहिर के साथ हमबिस्तर होती है, लेकिन अंत तक जस्टीफाई नहीं होता कि इसकी उसे क्या जरूरत थी. अगर पार्थ अपने मिशन पर था, और मीतू अपने मिशन पर तो उन्हें इतना लम्बा रूट लेने की जरूरत क्या थी?
कई चीजों को किया गया इग्नोर
अगर जैसा कि क्लाइमेक्स है, ताहिर को किसी की हत्या की साजिश में फंसाना था, तो पोस्टमार्टम रिपोर्ट में साफ पता चल जाना था कि हत्या कई दिन पहले हुई है. डायरेक्टर ने इसके लिए बुरी तरह जली हुई लाश को बहाना बनाया है. फिर डीएनए ताहिर के कपड़ों पर कैसे आ सकता है, उसका तो लाश से कोई कांटेक्ट हुआ नहीं? ऐसा लगता था कि ताहिर जैसा बड़ा लेखक कोई बड़ा वकील भी नियुक्त नहीं कर सकता था, जो एक सरकारी वकील से भिड़ सके. तेजतर्रार अधिकारी मिथुन चक्रवर्ती भी इतने बड़े ढक्कन थे, कि आसपास के सीसीटीवी चैक करने की भी जहमत नहीं उठाई, ना आरोपी का मेडिकल करवाते वक्त उसकी गर्दन का निशान देखा और ना ये जाना कि आरोपी जलाने के बाद खुद ही बेहोश क्यों हो गया था?
सवाल कई हैं लेकिन जवाब नहीं
सवाल कई हैं कि पुलिस ताहिर के लैपटॉप की क्लोनिंग समझने के बावजूद क्लोन करने वाले को क्यों नहीं पकड़ पाई थी? उसने जांच क्यों रोक दी? पुलिस संजय की हत्या के सीसीटीवी के हैंग हो जाने के बाद फुटेज को फिर से रिकवर करने में क्यों नहीं जुटी? ताहिर एक किताब लिखने के बाद क्यों दूसरी किताब नहीं लिख पा रहा था? अगली किताब का विषय फायनल करने से पहले ही 1 करोड़ का साइनिंग एमाउंट उसने क्यों लिया? शालू ताहिर से मीतू को 2 मिनट में मिलवा सकती थी और अगर वो ऐसा नहीं करना चाहती थी, तो उसके पीजी में ही जाके रहने की क्या जरुरत थी? गौहर को पता था कि पार्थ आईटी एक्सपर्ट है, फिर उसपर शक क्यों नहीं किया? लाश को काशी से मुंबई लाना और फिर इतने दिनों तक संभालकर रखना, वो भी बिना बदबू के कैसे मुमकिन हुआ? वो भी तब जब मीतू को घर के किराए के लिए कानों के झुमके बेचने पड़ते हैं? कई मामलों में दर्शकों को संतुष्ट करने के लिए, उनके मन में ज्यादा सवाल ना उठें, उसके लिए स्क्रीन प्ले राइटर्स को काफी मेहनत करनी होती है, और यहां तो सवाल ही सवाल उठ रहे थे.
किरदारों को रचने में कई झोल
कहानी को इन्वेस्टीगेशन के नजरिए से जब आप सोचते हो, तो बारीक से बारीक बातों पर ध्यान नहीं देते हो, खासतौर पर विलेन के किरदार को रचते वक्त. सोचिए जो लड़की अपना नाम बदलकर शहर में है, लेकिन अपने पुराने नाम का डेबिट कार्ड इस्तेमाल कर रही है, उसको मुंबई में कहीं नौकरी कैसे मिली होगी? पीजी में उसे कैसे रखा होगा? उसकी सेलरी कौन से एकाउंट में आती होगी? फर्जी आईकार्ड तो ना उसने ही बनाए और ना ही पार्थ ने फिर दोनों ने ही नौकरी में अपने कौन से कागज दिए और इससे पहले कहां काम करने का तजुर्बा दिखाया? सो काफी झोल है, किरदारों को रचने में भी.
एक्टिंग ने बचा लिया
उस पर बार-बार मीतू को अपनी किताब लिखते दिखाना, हर एपिसोड के अंत में पार्थ का ये बोलना कि चैप्टर वन, चैप्टर टू… ताहिर को जरूरत से ज्यादा गधा दिखाना, मानो वो एक लाइन भी किसी से सुने बिना नहीं लिख सकता था. ऐसे में जाहिर है कि अच्छी खासी वेबसीरीज का कचरा तो होना ही था. वो भी तब जब रवीन्द्र सुब्रमण्यिन के उपन्यास ‘द बेस्टसेलर शी रोट’ पर आधारित थी ये वेबसीरीज यानी मूल कहानी तो पहले से ही तोहफे में उसी तरह मिली थी, जैसे सीरीज में ताहिर को. हालांकि श्रुति हसन और सत्यजीत दुबे की एक्टिंग ने काफी कुछ बचाए भी रखा इस सीरीज को, क्योंकि गौहर खान तो फिर एक ग्लेमर डॉल ही बनकर रह गईं. मेकर्स को समझना चाहिए, ‘रांड, सांड, सीढी, संन्यासी’ काशी के दायित्व हैं, किसी वेबसीरीज को सुपरहिट बनाने के महज फॉर्मूले नहीं.