कोरबा। भई बात जब चुनावी हो तो चर्चा परिचर्चा का आनंद ही कुछ और है। फिर चर्चा बीच चौराहे पर हो रही हो तो उसमें रंग जमाना भी लाजमी हो जाता है। इन दिनों शाम की सर्द हवा के बीच ठेलों पर चाय की चुस्कियों के साथ जीत हार के गर्मा गर्म बहस खूब छेड़ी जा रही है। समर्थक तो जैसे अपने नेता की जीत कर अंगद के पांव बन जाते हैं, तो रोज बदल रहे सियासी समीकरण और अटकलों पर जमकर दांव लगाए जा रहे हैं।
शहर के सियासी फिजा शेयर मार्केट तरह बदल रही है कभी भाजपा भारी तो कभी कांग्रेस के जीत की दावेदारी. . चुनावी चर्चा में शामिल होने वाला तो सुरूर में है ही, उन्हें सुनकर अपने मन मस्तिष्क में गुना भाग करने का अपना अलग आनंद है। शहर से लेकर गांव की राजनीतिक चौपाल तक एक ही मुद्दा सुलग रहा है कि ऊंट आखिर किस करवट बैठेगा।
विधानसभा चुनाव को लेकर अभी मतदान हुए एक सप्ताह भी नहीं बीते हैं कि आम लोगों के बीच जीत-हार को लेकर अटकलों का बाजार गर्म होने लगा। चुनाव प्रचार के दौरान जहां उम्मीदवारों और उनके चुनाव प्रचार, रात में किए जाने वाले मैनेजमेंट को लेकर बात होती थी, वहीं अब लोग परिणामों को लेकर अटकलें लगा रहे हैं। ज्यों-ज्यों काउंटिंग की घड़ी करीब आ रही है, शाम ढलते ही मानों हर चौक-चौराहे पर अपना अपना झंडा लेकर लोगों में बहस छिड़ जाती है। इधर प्रत्याशियों के समर्थक अपने हाथों में दावों और अटकलों की कमान थामे अलग-अलग समीकरण से अपने पक्ष के प्रत्याशियों को विजयश्री दिला रहे हैं। चौक-चौराहे पर डटे समर्थक योजनाबद्ध तरीके से अपने प्रतिद्वंदियों की हार की चर्चा करते हुए थक नहीं रहे। कोई तर्क देता है कि फलां प्रत्याशी का वोट अंतिम समय में खिसक कर उनके चहेते प्रत्याशियों के पक्ष में डाला गया है। इधर दूसरा खैमा जीत-हार का समीकरण तय करते वक्त जाति से लेकर अमूक घर से पड़े वोटों की गणना तक कर डालते हैं। कुछ समर्थकों का तो यहां तक कहना था कि अमूक प्रत्याशियों के वोट-कुनबे को उन्होंने रात भर में ढाह दिया तथा उनके आधे से अधिक वोट उनके पक्ष में पड़े। इसके विपरीत सच्चाई है कि मतदान के बाद भी मतदाता चुप्पी बरकरार रखे हैं और वे अब भी पहुंचे प्रत्याशी को ये दिलासा दिला रहे हैं कि उनका वोट उन्हें ही पड़ा। खैर इनकी बातों में कितनी सच्चाई है वह तो 11 दिन बाद सामने आ ही जाएगा। फिलहाल चुनाव मैदान में उतरे सभी प्रत्याशी ही नहीं, उन्हें अपना सच्चा नेता मानकर मार मत देने वाले भी अपने आप को विजयी प्रत्याशी के रूप में आंक रहे हैं।
बहनों का प्यार है मंहगाई की मार
इस बहस में सबके अपने अपने फंडे और अलग-अलग तर्क हैं। किसी का कहना है कि ज्यादा वोटिंग यानी लोग परिवर्तन चाहते हैं। कोई दूसरा बात काटते हुए कह रहा है कि ज्यादा वोटिंग यानी सरकार को समर्थन भी है। महिलाओं की ज्यादा वोटिंग पर एक ने कहा कि यह लाड़ली बहना का असर है तो दूसरे का तर्क था कि महंगाई ने त्रस्त कर दिया है, इसलिए ज्यादा महिलाएं वोट देने आईं। एक तर्क यह भी है कि किसानों को भूल ना जाना, जिसने अब तक धान खरीदी की रफ्तार रोक रखी है और इसे कोई सत्ता के खिलाफ तो कोई सत्ता के समर्थन में सबसे बड़ा मतदान का कारण भी हो सकता है।