गिफ्ट का गम,ईडी के साये में मन रही…जुआरियो का जुआ और पुलिस ,एपीसी के डमरू की धून..वनवासी नेता

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गिफ्ट का गम

बिना गिफ्ट की कैैसी दिवाली, मगर इस बार दिवाली का चाल चलन बदल गया है। अभी तक दीपावली पर सरकारी विभागों में अधिकारियों से लेकर कर्मचारियों को गिफ्ट देने का रिवाज बना हुआ है। ठेकेदार से लेकर नेता, सप्लायर आदि लोग गिफ्ट बंटवाते हैं। गिफ्ट लेने-देने का चलन सालों से चला आ रहा है। गिफ्ट लेने वाले को तो इस दिन का बेसब्री से इंतजार होता है।

लेकिन, इस बार अफसरों के बंगलों में सूटबूट और ब्रीफकेश दोनों की नो इंट्री हो गई है। कुछ अफसरों ने बंगले में अपने गार्ड को कह दिया है कि कोई सूटबूट और ब्रीफकेश लेकर आए तो कह देना साहब मिट्टी वाले दीये लेने बाजार गए हैं। न माने ताे वो नोटिस दिखा देना जिसमें साफ तौर पर लिखा है कि कृपया दीवाली पर गिफ्ट न लाएं। चलो छत्तीसगढ़ के अधिकारी-कर्मचारी इस तरह की परंपरा की शुरुआत तो की….. भला हो ईडी वालों को उसके आने से कुछ तो नया हुआ।

ईडी के साये में मन रही दिवाली

यूं तो आदमी पैसा कमाने का मशीन बन चुका है ,पर किसके लिए ये उसे भी नहीं पता! अब जिले के हालिया दौर को ही देख लिजिये दिन रात षडयंत्र बुनकर धन इकट्ठा करने वाले प्रशासनिक अधिकारियों की दीवाली ईडी के सा ये में गुजर रही है। जिनके हुक्म पर चलता था जिले में राज वो ऐसे थे महाराज! लेकिन हवा के एक झोंका आया और सब उड़ा गया। जिले के अधिकारियों पर कवि रामधारी सिंह दिनकर की कविता “रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है! उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है।”
सटीक बैठती है। वैसे कहा तो यह भी रहा कि जांच की आंच में जिले के कई और अधिकारी झुलस सकते हैं। शिक्षा के मंदिर को ब्यापार बनाने वाले पूर्व महाराज भी जांच के लपेटे में आ सकते हैं।

सोन चिरई योजना चलाकर सोने के चिड़िया उड़ाने वाले साहब पूर्व कलेक्टरी के खास थे। उनके इशारे के बिना डीएम का फंड भी दूसरे विभाग में पर नहीं मार सकता था। हालांकि बेज्जत होकर निकले,पर उससे क्या माल महाराज तो कमा ही गए। अब जब ईडी आई तो उनकी याद लोगों को सता रही है।

जुआरियो का जुआ और पुलिस का हूवा…

बरसात के मौसम आते ही मेंढ़क खुले में आकर ‘टर्र-टर्र’ करते हैं, ऐसे ही दीवाली के मौसम में जुआरी ‘जुआ-जुआ’ करते हैं और इनके पीछे पुलिस भी ‘हूवा-हूवा’ का सायरन मारते घूमती है।
दीवाली है सो खाकी का खौफ और और अपराधियों पर रौब वाली पुलिस जुआ फड़ तलाशने में लगी है। सही भी है कहीं फड़ पकड़ा जाए तो जुआरियों की छोड़ो कम से कम विभाग के कुछ खिलाड़ियों की दीवाली मन जाए। हां ये बात अलग है की दीवाली से पहले ही पाली के पहाड़ में जुआ फड़ पकड़कर बोहनी जरूर कर लिए ,पर दीवाली में गांव-गांव, शहर-शहर हर डगर होने वाले जुआ फड़ को तलाश नहीं सकी।

कहा तो यह भी जा रहा है कि जुआरी इस बार खुले स्थानों को छोड़कर बंद कमरे में बावनपरियों का आनंद ले रहे हैं। जिसके कारण पुलिस को जुआ नहीं मिल रहा । वैसे तो दीवाली में जुआ खेलना शुभ माना जाता है। इसके पीछे भी पौराणिक मान्यताएं हैं। तभी तो गांवों में खासकर दीवाली मतलब जुआ का फड़ में हार जीत का दांव लगना। अब ये बात अलग है इस दांव के लिए पुलिस भी दांव लगाकर बैठे रहती है… जिससे मां लक्ष्मी की कृपा बरसती रहे।

एपीसी के डमरू की धून पर नाच रहे ये…

डमरू एक अजीब वाद्य यंत्र है, भगवान शंकर इसको धारण करते हैं। इसकी खास विशेषता यह है कि यह दोनों तरफ से बजता है। इसके बीचों बीच दो रस्सियां बंधी रहती हैं जिसके सहारे यह बजता है। इन दिनों शिक्षा विभाग में भी दो रस्सियां विभाग की खूब डमरू बजा रहे हैं। जाहिर सी बात है कि डमरू बजेगा तो लोग झूमने भी लगेंगे। तो विभाग के कर्मचारी झूमने भी लगे हैं और अपने पंसदीदा ठिकानों में जाने की चाह में समपर्ण भी एपीसी को कर रहे हैं। डमरू धारण करने वाले को इस बात का पता ही नहीं है और दो रस्सी का काम करने वाले कारिंदे नोट बटोरने में लगे हैं। अरसे पहले एक फिल्म सरगम आई थी जिसमें गीत था डफली वाले डफली बजा अब इसी लयताल में शिक्षा विभाग पर भी डमरू वाले डमरू बजा कहने वाले हजारों शिक्षक हैं।

कहने का आशय यह है कि डमरू की ताल की कीमत देने के लिए बहुत से लोग घूम-फिर रहे हैं। बस उन्हें अटैचमेंट की पसंदीदा जगह मिल जाये। दरअसल उच्चाधिकारी के हर फैसले पर दखल रखने वाले डीएमसी के करीबी रहे एपीसी को सुपर डीईओ भी कहा जाने लगा है।

विभागीय पंडितों की माने तो कुछ दिनों पहले जिनकी पुछारी नहीं थी वो अब बॉस बन गया है। उसके विभागीय रोबदाब को देखते हुए लोग भी कहने लगे हैं ” सब समय की माया और जहां माया है” वहां तो रंक भी राजा बन जाता है। ठीक उसी तरह उच्च अधिकारियों का तो छोड़िए उनके डमरू से भी विभाग के लोग नाच रहे हैं।

बस्तर और वनवासी नेता

छत्‍तीसगढ़ से मानसून विदा हो गया, प्रदेश के आखिरी छोर में बसे बस्‍तर को भी मानसून ने टाटा कर दिया मगर अपने बोरिया बिस्‍तर के साथ डटे दोनों दलों के नेता अभी भी यहां से अपना डेरा जमाए बैठे है। बस्‍तर में सत्‍ता की चाबी तलाशने पहले भाजपा अध्‍यक्ष अरुण साव ने अपनी टीम के साथ करीब 15 दिनों तक गांव गांव की खाक छानने के बाद वनवास से रायपुर लौटे हैं। अब पीसीसी अध्‍यक्ष मोहन मरकाम, पीएल पुनिया वहां उसी चाबी को तलाशने जा रहे हैं जिस सत्‍ता की चाबी को अरुण साव वहां छुपाकर आएं हैं।

इस बीच भानूप्रतापपुर में विधानसभा के उप चुनाव भी होने हैं, ऐसे में दोनों दलों के लिए इस चुनाव को आने वाले विधानसभा चुनाव का सेमी फाइनल मानकर चल रहे हैं। खबरी लाल की माने तो आदिवासी आरक्षण के मसले पर हाईकोर्ट के आदेश से कांग्रेस का दम फूलने लगा है, भाजपा इसे मौका मानकर लपक रही है। कुल मिलाकर नेताओं के बोरिया बिस्‍तर इतनी जल्‍दी यहां से नहीं सिमटने वाले हैं। फिलहाल भानूप्रतापपुर विधानसभा उप चुनाव के बाद ही ये पता चल पाएगा कि आखिर सत्‍ता की चाबी किसके हाथ लगी है। यानि चाबी हाथ लगी तो सत्‍ता नहीं लगी तो वनवास तो है ही।

 

    ✍️ अनिल द्ववेदी, ईश्वर चन्द्रा