चारों दिशाओं से बरस रही,कौन किस पर भारी, नेता या अधिकारी…चिटफंड की पंचायत,तोंद में भेद, यानि…दुकान सजाया किसी और

475

चारों दिशाओं से बरस रही कृपा...

कोल डस्ट और राख वर्षा तो व्यवस्था की ओर से शहरवासियों के लिए बिन मांगी गिफ्ट हो गई है जिसे मानो न मानो आपको लेनी ही पड़ेगी पर इन दिनों ट्रैफिक पुलिस पर चारों दिशाओं से कृपा बरस रही है। इस वक्त यातायात विभाग के मुखिया अनुभवी खिलाड़ी जो हैं। खबरीलाल की माने तो जिले के झगरहा जो भैसमा कॉलेज तक वाहन चेकिंग कर विभाग का लक्ष्य पूरा करते हैं तो एक टीम रुमगड़ा के समीप तैनात रहती हैं। चम्पा कोरबा मार्ग पर भिलाई खुर्द से लेकर मड़वारानी के पास भी जवान मुस्तैद रहते हैं। राताखार पुल वाले मार्ग में दर्री के समीप भी यातायात के जवान वाहन चेकिंग करते नजर आते हैं।

कहा तो यह भी जा रहा है कि स्पेशल चेकिंग के लिए एक टीम कोयलांचल क्षेत्र में सक्रिय रहती है, जो कोयला लोड गाड़ियों का हिसाब किताब रखती है। मतलब साफ है बिना रोक टोक के शहर के आउटर में चल रहे चेकिंग अभियान से विभाग के मुखिया पर जमकर कृपा बरस रही है।

उड़ती खबर यह भी है कि साहब बंधा बंधाया हिसाब किताब को खुद ही हैंडल करते हैं। हां ये बात अलग है कि चारों दिशाओं में चल रही चेकिंग अभियान में चेहरा देख कार्रवाई की जाती है। वैसे इस बात की भी चर्चा जमकर है कि शहर में दौड़ने वाले वाहनों की डायरी भी मेंटेंन की जा रही है। जिससे रिकार्डेड वाहनों को चेकिंग से रियायत दी जा सके।

कौन किस पर भारी, नेता या अधिकारी…

जिले में नए जिला अधिकारियों की पोस्टिंग के बाद समीकरण बदलने के कयास लगाए जा रहे हैं। खैर ये समय ही बताएगा कौन किस पर भारी पड़ रहा है… नेता या अधिकारी!

ऊर्जाधानी की बात करें तो कलेक्टर और एसपी दोनों को दूसरे जिला भेजकर नए व अनुभवी लोगां को जिला का कमान सौंपा गया है। अब तक कोरबा में मंत्री से पूर्व कलेक्टर ओर एसपी का संबंध कैसे थे वह जग जाहिर रहा। इस कारण उम्मीद की जा रही है कि अब कोरबा में माहौल बदलेगा। मगर यह कहना जल्दबाजी होगा कि क्या होगा , यह तो समय बताएगा।

नए डीएम साहब के बारे में खबरें है कि वो बहुत ही शालीन अधिकारी हैं और हर परिस्थिति को अपने अनुकूल कर लेते हैं तभी तो वेटिंग सीएम के इलाके से बगैर विवाद के काम करके निकल गए। कहा तो यह भी जाता है कि कोरबा जिले का कलेक्टर और एसपी बनने लंबी लाइन रहती है। इन सबके बीच दो अनुभवी और शांत चित्त वाले अधिकारियों को भेजकर एक नया समीकरण बनने से इंकार नहीं किया जा सकता।

खैर खनिज संपदा से परिपूर्ण धरती का तासीर कुछ अलग है, यहां नेता और अधिकारियों के बीच वर्चस्व को लेकर कोल्डवॉर चलता रहा है। अब देखना यह होगा कि आने वाले दिनों में नेता, मंत्री और अधिकारियों का आपस में तालमेल बैठता है या फिर ….!

तोंद में भेद, यानि पहाड़ से ढेला

जिले में कुछ ऐसी ही स्थिति चहुं ओर देखने को मिल जाती है, जब एक तरफ संवेदनशील अधिकारी तालाब में डूबने वाले ग्रामीणों को तत्काल मुआवजा देकर पुण्य का काम करते हैं। दूसरी तरफ तहसील कार्यालय के अधिकारी मुआवजा वितरण में मनमानी कर रहे हैं। कहा तो यह भी जा रहा है कि जिस किसान की जमीन सरकारी कार्य के लिए अधिग्रहित हुई है उसे मुआवजा की रकम में भी आंखें गढ़ाए मनमाने नकदी की मांग कर रहे हैं।
वैसे भी राजस्व विभाग के अधिकारी काम के एवज में ….के लिए जाने जाते हैं।
तो मुआवजा में अगर कुछ डिमांड कर रहे हैं तो कोई आश्चर्य वाली बात नहीं हैं। विडंबना तो यह है कि पुरखों की जमीन के एवज में मिलने वाली मुआवजे के मरहम में भी जवाबदार ही डंडी मार रहे हैं।

खबरीलाल की माने तो पूर्व में भी इस तरह की शिकायतें मिली थी जिसे लेकर तहसील के एक कर्मचारी का वीडियो चर्चा में था। अब एक बार फिर किसानों से मुआवजा की राशि में रकम की डिमांड की चर्चा जोरो पर है।

वैसे भी इस “मुआवजा“ शब्द का हिंदुस्तानियों से बहुत गहरा नाता है। किसी जमीन या किसी दुर्घटना में मलहम लगाने का इकलौता अचूक साधन है मुआवजा। हालाँकि बहुत कम किस्मतवाले होते हैं, जिन्हें मुआवजा पाने का सौभाग्य मिल पाता है। इसे पाने के लिए मुंगेरी लाल की तरह हसीन सपने देखते हुए चक्कर पे चक्कर काटते हुए घनचक्कर बनना पड़ता है। टेबल के समंदर में मुआवजे की फ़ाइल इस टेबल से उस टेबल की तैरती रहती है और मुआवजा की आस लिए हुए ही कुछ लोग तो बेचारे परमधाम की सैर को चल पड़ते हैं।

मुआवजा वही ले पाता है, जो इसे पाने का जिगरा लेकर पैदा होता है और गरीब और लाचार लोगों को ईश्वर ऐसा जिगरा देकर भेजता ही नहीं है। फिर भी कुछ लोग मुआवजा पा ही लेते हैं, लेकिन उनका मुआवजा काम नहीं आता क्योंकि पहाड़ के आकार का मुआवजा उनतक पहुँचते-पहुँचते मिट्टी का छोटा ढेला बन जाता है।

आप यह मत सोचिए कि मुआवजे से किसी का भला नहीं होता है। मुआवजा दिलवाने वाले विभाग में विभागीय लोगों और बिचौलिओं की बढ़ती तोंदों से आप अनुमान लगा सकते हैं, कि मुआवजे की राशि किधर है।

चिटफंड में कितना चिट.. कितना फंड

छत्तीसगढ़ विधानसभा का मानसून सत्र हंगामेदार रहा। मानसून सत्र में आरोपों का मानसून जमकर बरसा। सदन में पक्ष और विपक्ष के सवालों की बौछारें माननीय को भिगोती रही। इस दौरान पंचायत मंत्री के इस्तीफे से शुरु हुई सदन की अब तक की कार्यवाही आखिरकार चिटफंड, नान घोटाला और ईडी की कार्यवाही पर जाकर खत्म हुई। प्रदेश के मुखिया भूपेश कका पूर्व सीएम रमन सिंह पर जमकर बरसे तो रमन सिंह ने भी सवालों की झड़ी लगा दी। बात लिखकर देने से लेकर संन्यास तक पहुंच गई।

यानि इस सत्र में अब तक अनुपूरक बजट के अलावा जनता के हित का कोई बड़ा निर्णय नहीं लिया जा सका। न तो खाद बीज के लिए जूझ रहे किसानों की बात हो पाई न ही विकास की बात। चिटफंड की पंचायत से शुरु हुआ पूरा सत्र अब तक आरोप प्रत्यारोप में गुजर गया।

अब सोमवार से छत्तीसगढ़ के सरकारी दफ्तर 7 दिन बंद रहेंगे। केंद्र के समान भत्ते देने की मांग को लेकर कर्मचारी और शिक्षक भी हड़ताल पर रहेंगे। कर्मचारियों को उम्मीद थी कि उनके हित पर सत्र के दौरान कोई बात होगी, वहीं सालों से राजधानी के बूढ़ा तालाब में अनशन करने वालों की उम्मीदों पर भी पानी फिर गया।

अभी विधानसभा चल रही है। सूबे में चुनाव को करीब डेढ़ साल ही बचे हैं। जनता, सरकार के वादों और इरादों को तौल रही है, अगर अब भी उनकी उम्मीदों को झटका लगा तो आने वाले समय पर जनता खुद अपनी पंचायत लगा कर फैसला कर देगी। क्योंकि चिटफंड की पंचायत से ज्यादा जरूरी है जनता का ख्याल रखना और सरकार को इस मुद्दे पर भी सोचना होगा।

 

दुकान सजाया किसी और ने बेच दिया…

शहर की नेतागिरी फ्लेक्स बैनरों तक सिमट कर रह गई है। बात निगम के घेराव की ही ले लीजिए…शारदा विहार में बन रहे चर्च के विरोध में आंदोलन के लिए पूरी ताकत किसी और ने लगाई लेकिन श्रेय क्रीज वाले नेता ले गए। मतलब दुकान कोई और सजाया पर माल पार्षदों ने बेच दिया।

कहा तो यह भी जा रहा है कि निगम के विपक्षी नेता आपसी कांट्रेक्ट के तहत नेतागिरी कर रहे हैं। तभी तो निगम के गड़बड़झाला पर विपक्षी चुप्पी साध रखे हैं। खबरीलाल की माने तो निगम में राजनीति कम ठेकेदारी ज्यादा हावी है। और अपने कायदे और फायदे के लिए ही आवाज बुलंद की जाती है। पब्लिक हित के लिए लड़ने वाले तो छोड़िए सोचने वाले की भी कमी है। अब तो सामाजिक कार्यों पर भी नेताओं की पकड़ खिसकते जा रही है। यही वजह है बिना आबादी वाले एरिया में बनने वाले चर्च की सुध सामाजिक सेना को करनी पड़ी। आंदोलन की दमदारी और पब्लिक की भीड़ को देखते हुए विपक्षी पार्षदों ने बीच मे एंट्री मारी और सारा श्रेय ले गए।

तभी तो आम लोगों में ये चर्चा सरेआम हो रही कि आंदोलन के लिए दुकान किसी और ने सजाया और माल कोई और बेच गए।

        ✍️ अनिल द्विवेदी, ईश्वर चन्द्रा